Post by James on Jan 23, 2014 3:44:01 GMT
I'm not sure if everyone knows here that Komal Nahta's film reviews in Hindi are available on the BBC website? I wonder if anyone would like to read it and go through a few of them together. Perhaps once we're comfortable with the format we could try to do one ourselves?
If there are any Urdu speakers who don't read devanagari but are interested, I'd be happy to put this into roman script or try putting it into Urdu script for you.
Here's his latest, on Dedh Ishqiya:
रेटिंग : **
शेमारू और विशाल भारद्वाज पिक्चर्स की 'डेढ़ इश्क़िया' साल 2010 में आई 'इश्क़िया' का सीक्वल है.
खालू (नसीरुद्दीन शाह) और बब्बन (अरशद वारसी) मशहूर ठग हैं. दोनों मुश्ताक (सलमान शाहिद) के लिए काम करते हैं. लेकिन वो तब खालू के पीछे पड़ जाता है जब वो एक सोने का क़ीमती हार चुराकर भाग जाते हैं. बब्बन, वादा करता है कि वो खालू को ढूंढ निकालेगा.
फ़िल्म कहानी है खालू और बेगम पारा (माधुरी दीक्षित नेने) और बब्बन (अरशद वारसी) और मुनिया (हुमा क़ुरैशी) के रोमांस की. बेगम पारा से जान मोहम्मद (विजय राज़) भी इश्क़ करता है और उसे पाना चाहता है.
इस बीच एक दिलचस्प मोड़ पर मुनिया, बब्बन की मदद से बेगम पारा का अपहरण कर लेती है. ये अपहरण उसी दिन होता है जब खालू को ठेंगा दिखाकर बेगम पारा, जान मोहम्मद से शादी करने का फ़ैसला कर लेती है.
उसके बाद क्या होता है ? मुनिया, बेगम पारा का अपहरण क्यों करवाती है ? क्या, जान मोहम्मद, अपनी होने वाली पत्नी बेगम पारा को उसके चंगुल से बचा पाता है ? खालू और बब्बन का आख़िर में क्या होता है ? यही फ़िल्म की कहानी है.
उबाऊ कहानी
दराब फ़ारुक़ी की कहानी में कुछ दिलचस्प मोड़ हैं लेकिन कुल मिलाकर देखें तो ये बचकानी नज़र आती है. ड्रामा ज़्यादा प्रभाव पैदा नहीं कर पाया है. फ़िल्म के आख़िर में दर्शक ठगा हुआ महसूस करते हैं क्योंकि बेगम पारा का किरदार अपने लक्ष्य को हासिल ही नहीं कर पाता.
बेगम पारा क्या हासिल करना चाहती है, यहां पर ये बताना ठीक नहीं होगा, क्योंकि यही फ़िल्म का सस्पेंस है. विशाल भारद्वाज और अभिषेक चौबे का स्क्रीनप्ले बेहद धीमी गति से आगे बढ़ता है और पेचीदा है क्योंकि कहानी बार-बार फ़्लैशबैक में चली जाती है.
लेकिन कहानी में कुछ बेहद दिलचस्प मौक़े आते हैं.
नसीर-अरशद की जुगलबंदी
ख़ासतौर से बब्बन और खालू के बीच के कुछ दृश्य बेहद मनोरंजक बन पड़े हैं. जान मोहम्मद (विजय राज़) के भी कई दृश्य मज़ेदार हैं. लेकिन फ़िल्म में ऐसे मे कम ही आते हैं.
फ़िल्म की शुरुआत में ही दर्शकों को पता चल जाता है कि हर किरदार एक दूसरे को बेवक़ूफ़ बनाने में लगा है. इस वजह से फ़िल्म में अनिश्चितता जैसी कोई बात ही नहीं दिखती. फ़िल्म का क्लाइमेक्स भी बेहद निराशाजनक है.
विशाल भारद्वाज के लिखे डायलॉग अच्छे हैं लेकिन फ़िल्म में क्लिष्ट उर्दू का प्रयोग इसकी अपील पर विपरीत प्रभाव डालेगा
अभिनय
खालू के किरदार में नसीरुद्दीन शाह लाजवाब रहे हैं. वो एक ठग के रोल में पूरी तरह से घुस गए हैं और ज़बरदस्त कॉमेडी की है. माधुरी दीक्षित नेने बहुत ख़ूबसूरत भी लगी हैं और उनकी अदाकारी भी ज़बरदस्त रही है. फ़िल्म में उन्होंने जो गहने और ड्रेसेस पहने हैं वो नए फ़ैशन ट्रेंड को जन्म दे सकते हैं.
हुमा क़ुरैशी ने भी बड़ा संतुलित अभिनय किया है. विजय राज़ ने भी बेहतरीन अभिनय किया है. मनोज पाहवा अपने रोल में अच्छे रहे हैं. मुश्ताक़ के रोल में सलमान शाहिद की भी तारीफ़ करनी होगी. बाकी कलाकार भी बहुत उम्दा रहे हैं.
निर्देशन
अभिषेक चौबे का निर्देशन अच्छा है लेकिन फ़िल्म एक सीमित दर्शक वर्ग को ही अपील कर पाएगी. लेखक और निर्देशक के तौर पर वो फ़िल्म में और कसावट ला सकते थे.
विशाल भारद्वाज का संगीत अच्छा है लेकिन सुपरहिट गानों की कमी है. 'इश्क़िया' में दो सुपरहिट गाने थे, 'इब्नेबतूता' और 'दिल तो बच्चा है जी', वैसे गाने 'डेढ़ इश्क़िया' में नहीं हैं. गुलजार के गाने भी एक ख़ास किस्म के श्रोता को ही पसंद आएंगे.
कुल मिलाकर 'डेढ़ इश्क़िया' एक उबाऊ फ़िल्म है. युवा वर्ग को लुभाने के लिए फ़िल्म में कुछ ख़ास नहीं है. फ़िल्म की कहानी और उर्दू डायलॉग एक ख़ास दर्शक वर्ग को ही पसंद आएंगे.
If there are any Urdu speakers who don't read devanagari but are interested, I'd be happy to put this into roman script or try putting it into Urdu script for you.
Here's his latest, on Dedh Ishqiya:
रेटिंग : **
शेमारू और विशाल भारद्वाज पिक्चर्स की 'डेढ़ इश्क़िया' साल 2010 में आई 'इश्क़िया' का सीक्वल है.
खालू (नसीरुद्दीन शाह) और बब्बन (अरशद वारसी) मशहूर ठग हैं. दोनों मुश्ताक (सलमान शाहिद) के लिए काम करते हैं. लेकिन वो तब खालू के पीछे पड़ जाता है जब वो एक सोने का क़ीमती हार चुराकर भाग जाते हैं. बब्बन, वादा करता है कि वो खालू को ढूंढ निकालेगा.
फ़िल्म कहानी है खालू और बेगम पारा (माधुरी दीक्षित नेने) और बब्बन (अरशद वारसी) और मुनिया (हुमा क़ुरैशी) के रोमांस की. बेगम पारा से जान मोहम्मद (विजय राज़) भी इश्क़ करता है और उसे पाना चाहता है.
इस बीच एक दिलचस्प मोड़ पर मुनिया, बब्बन की मदद से बेगम पारा का अपहरण कर लेती है. ये अपहरण उसी दिन होता है जब खालू को ठेंगा दिखाकर बेगम पारा, जान मोहम्मद से शादी करने का फ़ैसला कर लेती है.
उसके बाद क्या होता है ? मुनिया, बेगम पारा का अपहरण क्यों करवाती है ? क्या, जान मोहम्मद, अपनी होने वाली पत्नी बेगम पारा को उसके चंगुल से बचा पाता है ? खालू और बब्बन का आख़िर में क्या होता है ? यही फ़िल्म की कहानी है.
उबाऊ कहानी
दराब फ़ारुक़ी की कहानी में कुछ दिलचस्प मोड़ हैं लेकिन कुल मिलाकर देखें तो ये बचकानी नज़र आती है. ड्रामा ज़्यादा प्रभाव पैदा नहीं कर पाया है. फ़िल्म के आख़िर में दर्शक ठगा हुआ महसूस करते हैं क्योंकि बेगम पारा का किरदार अपने लक्ष्य को हासिल ही नहीं कर पाता.
बेगम पारा क्या हासिल करना चाहती है, यहां पर ये बताना ठीक नहीं होगा, क्योंकि यही फ़िल्म का सस्पेंस है. विशाल भारद्वाज और अभिषेक चौबे का स्क्रीनप्ले बेहद धीमी गति से आगे बढ़ता है और पेचीदा है क्योंकि कहानी बार-बार फ़्लैशबैक में चली जाती है.
लेकिन कहानी में कुछ बेहद दिलचस्प मौक़े आते हैं.
नसीर-अरशद की जुगलबंदी
ख़ासतौर से बब्बन और खालू के बीच के कुछ दृश्य बेहद मनोरंजक बन पड़े हैं. जान मोहम्मद (विजय राज़) के भी कई दृश्य मज़ेदार हैं. लेकिन फ़िल्म में ऐसे मे कम ही आते हैं.
फ़िल्म की शुरुआत में ही दर्शकों को पता चल जाता है कि हर किरदार एक दूसरे को बेवक़ूफ़ बनाने में लगा है. इस वजह से फ़िल्म में अनिश्चितता जैसी कोई बात ही नहीं दिखती. फ़िल्म का क्लाइमेक्स भी बेहद निराशाजनक है.
विशाल भारद्वाज के लिखे डायलॉग अच्छे हैं लेकिन फ़िल्म में क्लिष्ट उर्दू का प्रयोग इसकी अपील पर विपरीत प्रभाव डालेगा
अभिनय
खालू के किरदार में नसीरुद्दीन शाह लाजवाब रहे हैं. वो एक ठग के रोल में पूरी तरह से घुस गए हैं और ज़बरदस्त कॉमेडी की है. माधुरी दीक्षित नेने बहुत ख़ूबसूरत भी लगी हैं और उनकी अदाकारी भी ज़बरदस्त रही है. फ़िल्म में उन्होंने जो गहने और ड्रेसेस पहने हैं वो नए फ़ैशन ट्रेंड को जन्म दे सकते हैं.
हुमा क़ुरैशी ने भी बड़ा संतुलित अभिनय किया है. विजय राज़ ने भी बेहतरीन अभिनय किया है. मनोज पाहवा अपने रोल में अच्छे रहे हैं. मुश्ताक़ के रोल में सलमान शाहिद की भी तारीफ़ करनी होगी. बाकी कलाकार भी बहुत उम्दा रहे हैं.
निर्देशन
अभिषेक चौबे का निर्देशन अच्छा है लेकिन फ़िल्म एक सीमित दर्शक वर्ग को ही अपील कर पाएगी. लेखक और निर्देशक के तौर पर वो फ़िल्म में और कसावट ला सकते थे.
विशाल भारद्वाज का संगीत अच्छा है लेकिन सुपरहिट गानों की कमी है. 'इश्क़िया' में दो सुपरहिट गाने थे, 'इब्नेबतूता' और 'दिल तो बच्चा है जी', वैसे गाने 'डेढ़ इश्क़िया' में नहीं हैं. गुलजार के गाने भी एक ख़ास किस्म के श्रोता को ही पसंद आएंगे.
कुल मिलाकर 'डेढ़ इश्क़िया' एक उबाऊ फ़िल्म है. युवा वर्ग को लुभाने के लिए फ़िल्म में कुछ ख़ास नहीं है. फ़िल्म की कहानी और उर्दू डायलॉग एक ख़ास दर्शक वर्ग को ही पसंद आएंगे.